Sunday 8 September 2019

राम जेठमलानी

राम जेठमलानी आज ९५ वर्ष की अवस्था पूरी कर चले गये । अद्भुत प्रतिभाशाली वकील थे , भारत के विधिमंत्री भी रहे ।
उनके बहुत से आलोचकों ने उन पर राष्ट्रद्रोहियों , तस्करों, बलात्कारियों और घोटालेबाजों के मुकदमें लड़ने के आरोप लगाये हैं और कुछ ने तो उनकी मृत्यु पर संतोष व्यक्त किया है । १९५९ में नानावती के प्रसिद्ध मुकदमे से प्रकाश में आये राम जेठमालानी ने बहुत से बदनाम लोगों के मुकदमे लड़े जिनमें हाजी मस्तान जैसे तस्कर, राजीव गाँधी हत्या के षडयंत्रकारी , इंदिरा गाँधी के हत्यारे, अनेकानेक आतंकवादी तक शामिल हैं । यह उनकी क़ाविलियत ही थी कि उन्हें ऐसे मुकदमे मिलते थे । सैयद मोदी हत्याकांड में संजय सिंह की ज़मानत कराने वह लखनऊ भी आये थे ।
केवल १७ वर्ष की आयु में उन्होंने क़ानून की पढ़ाई पूरी कर ली थी और वकालत के लिये निर्धारित २१ वर्ष की आयु में विशेष रियायत ले कर उन्होंने वकालत शुरू की थी ।
मेरा यह निश्चित मत है कि वकालत एक व्यवसाय है जिसकी कुछ मर्यादायें होती हैं ।वकील का काम है कि वह लोगों को बिना किसी भेद भाव के विधिक सेवा प्रदान करे । अगर कोई आतंकी है तो भी उसका केस लड़ने वाला कोई न कोई वकील तो होगा ही , नहीं होगा तो सरकार उसे वकील मुहैया करायेगी ।
कभी किसी डॉक्टर के बारे में भी कहिये कि आतंकियों भ्रष्टों और डकैतों का इलाज करने वाला आज विदा हो गया ।
राजकमल गोस्वामी

चंद्रयान - 2

छ: सात वर्ष की अवस्था रही होगी मेरी जब यूरी गगारिन अंतरिक्ष की यात्रा कर लौटे थे । उस समय तक अंतरिक्ष का बोध तो विकसित ही नहीं हो पाया था तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह हंगामा आख़िर क्यों बरपा है । पिता जी से , गुरुजन से बड़ी जिज्ञासा के साथ पूछा कि क्या गगारिन चाँद पर हो आया है ? अगर चाँद पर नहीं गया तो हवाई जहाज़ तो रोज़ ही आसमान में उड़ते दिखते हैं आख़िर गगारिन क्या कर के आया है जो इतना शोर मच रहा है । बालसुलभ जिज्ञासा को शान्त करने की गुरुजनों ने बड़ा प्रयास किया पर “समुझि परेउ नहिं बालपन तब अति रहेउँ अचेत” ! 
धीरे धीरे समझ विकसित हुई कि पृथ्वी के वायुमंडल के बाहर भी आकाश है जहाँ हवाई जहाज़ नहीं अंतरिक्ष यान ही जा सकते हैं और उस आकाश में जाने के लिये एस्केप वेलॉसिटी की जरूरत होती है जो पृथ्वी के लिये लगभग ७ मील प्रति सेकेंड है यानी इस रफ्तार से कोई पत्थर उछाला जाये वह लौट कर धरती पर नहीं गिरेगा अपितु अंतरिक्ष में चला जायेगा और वहीं एक उपग्रह बन कर धरती का चक्कर लगाता रहेगा ।
गगारिन रूसी था तो अमेरिका कहाँ पीछे रहने वाला था । सन ६९ में उसने चाँद पर इंसान को उतार दिया । मानवता के इतिहास में यह बहुत बड़ी घटना थी । मुस्लिम धर्मगुरुओं ने पहले तो यह मानने से ही इन्कार कर दिया कि चाँद पर कोई इंसान गया भी है । बाद में बहुत से लोग यह कहते सुने गये कि नील आर्मस्ट्राँग ने वहाँ कुछ ऐसा देखा कि वह लौट कर इस्लाम पर ईमान ले आये । आर्म्स्ट्राँग इसका खंडन ही करते रहे मगर यह झूठ खूब फैलाया गया ।
अंतरिक्ष की दौड़ में मगर भारत कहाँ था ? जब तक श्रीलंका को टेस्ट दर्जा नहीं मिला था तब तक वहाँ के क्रिकेट प्रेमी भारतीय खिलाड़ियों के बड़े फैन थे मगर अंदर अंदर वह एक बड़ा धमाका करने की तैयारी कर रहा था । भारत स्वतंत्रता के पश्चात उन्मीलित नेत्रों से परमाणु शक्ति के उपयोग और अंतरिक्ष के खुलते द्वारों को उत्सुकतापूर्वक देख रहा था । 
पराधीन युग में भारत ने विज्ञान क् सहारे पश्चिम की आश्चर्यजनक प्रगति देखी थी । इसलिये उसने तय कर लिया था देश को दुनिया के बराबर लाना है तो विज्ञान के अब तक अनछुए क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा । गगारिन की यात्रा के कुछ ही समय बाद भारत ने परमाणु शक्ति मंत्रालय के अधीन विक्रम साराभाई के नेतृत्व में इंडियन नेशनल कमिटी फॉर स्पेस रिसर्च ( incospar ) का गठन कर दिया जो सीधे प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह होती थी । आगे चल कर यही इंकोस्पार सन १९६९ में इसरो बन गया ।
विज्ञान के शोध में यह पता नहीं चलता कि जो शोध आज हो रही है कल उसका क्या उपयोग होगा । १७५२ में जब बेंजामिन फ्रैंकलिन ने पतंग उड़ा कर आकाशीय बिजली को भीगी डोर के माध्यम से चाबी में उतारने का प्रयोग किया था तो उन्हें बिलकुल अनुमान न रहा होगा कि सौ साल बाद थॉमस अल्वा एडीसन बिजली के बल्ब बना कर दुनिया की रातों को जगमग कर देंगे ।
भारत ने अपने अत्यंत सीमित संसाधनों से अंतरिक्ष के क्षेत्र में कदम रखा । अपना पहला उपग्रह आर्यभट हमने सन १९७५ में रूस की मदद से अंतरिक्ष में भेजा था और आज हम सैकड़ों विदेशी उपग्रह अपने पीएसएलवी से भेज चुके हैं। भारतीय वैज्ञानिक मेधा का लोहा दुनिया पहले भी मानती थी । बस भारत की अर्थव्यवस्था को अंग्रेजों ने चूस लिया था । हमारे ही वैज्ञानिक नासा में छाये हुए हैं। हम उतना खर्च करने की सामर्थ्य नहीं रखते जितना पश्चिम अपने वैज्ञानिकों पर कर सकता है ।
बेहद कम बजट में हमारे वैज्ञानिक काम करते रहते हैं । मंगलयान एक अद्भुत उपलब्धि थी । चन्द्रयान दो की सॉफ्टलैंडिंग विफल हो जाने से कुछ निराश होने की बात नहीं है और रोने की तो बिलकुल भी नहीं । एडीसन ने बल्ब का फिलामेंट बनाने के लिये दस हजार असफल प्रयोग किये थे । इसरो को तो दुनिया की कोई मदद भी नहीं है उसके वैज्ञानिक हमेशा घातक विदेशी जासूसों के निशाने पर रहते है ।
अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर बहुत ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिये विशेष रूप से जब हमारे पड़ोसी हमारी विफलता पर ताली पीटने को तैयार बैठे हों । हमारी किसी से स्पर्धा नहीं है । विज्ञान बड़ी शांति के साथ आगे बढ़ता है और अपने समय का इंतज़ार करता है ।
भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों को बहुत बहुत बधाइयाँ । 
राजकमल गोस्वामी

Saturday 6 July 2019

निंदा और आत्मश्लाघा

निंदा और आत्मश्लाघा में कोई अंतर नहीं होता ।
जब कोई आप की प्रशंसा करता है तो अहंकार को अत्यंत तोष का अनुभव होता है । थोड़ी देर के लिये आप आनंदातिरेक में चले जाते हैं । किंतु अपनी प्रशंसा सुनने का अवसर बहुत लंबे समय तक नहीं मिल पाता । चाटुकार कोशिश करते हैं कि आप में कोई ऐसा गुण खोज लें किंतु कई बार अच्छे से अच्छा चाटुकार भी आप में कोई प्रशंसा योग्य गुण नहीं खोज पाता । ऐसे में परनिंदा अत्यंत सहायक सिद्ध होती है ।
परनिंदा अत्यंत सरस होती है । दूर से भी कान में पड़ जाये तो कान खड़े हो जाते हैं । निंदा की तात्कालिक प्रतिक्रिया अंतश्चेतना पर दो तरह की होती है । एक तो यदि वह दुर्गुण आप के अंदर है तो आप को संतोष होता है कि आप अकेले दुर्गुणी नहीं हैं आप जैसा एक और मिला । आप स्वयं किये हुये पापों की आत्मग्लानि से मुक्त हो जाते हैं । दूसरा यह कि यदि वह दुर्गुण आप में नहीं है तो हृदय में अलग तरह की श्रेष्ठता का भाव उत्पन्न होता है । प्रशंसा सुनने को तरसता आप का मन एक पल को अपने ऊपर ही मुग्ध हो जाता है । आप और रुचि पूर्वक निंदा सुनने लगते हैं । धीरे धीरे आप स्वयं भी निंदा करने के जाल में फँस जाते हैं ।
किसी की निंदा में जितनी जल्दी विश्वास उत्पन्न होता है रस उत्पन्न होता है प्रशंसा में उसके एकदम पलट स्थिति होती है । किसी की प्रशंसा में इतनी जल्दी रूचि उत्पन्न नहीं होती । कोई इतना अच्छा कैसे हो सकता है, निश्चित रूप से पाखंडी है , जैसे तमाम प्रश्न मन में घुमड़ने लगते हैं । प्रशंसा तो केवल ईश्वर की ही हो सकती है । 
कोई आप के अवगुणों के बारे में जाने या न जाने मगर आप तो जानते ही हैं । लगभग यही धारणा लोग दूसरों के बारे में रखते हैं । इसीलिये दूसरे की प्रशंसा आसानी से हजम नहीं होती । इसमें थोड़ी बहुत देर ही रस आ सकता है । निंदा में अनंत रस है । पूरी रात बैठ कर निंदा की जा सकती है !
तुलसी के समय से अब तक मानव मनोविज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है ।
जहँ कहुँ निंदा सुऩहिं पराई ! हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई !!
जो काहू की सुनहिं बड़ाई ! स्वास लेहिं जिमि जूड़ी आई !!
राजकमल गोस्वामी

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग का पतन

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग का पतन उत्तर प्रदेश के शनै: शनै: राजनैतिक पतन का सीधा परिणाम है । स्वतंत्रता के बाद कई दशकों तक इलाहाबाद एक मात्र परीक्षा केंद्र होता था । प्रतियोगी छात्र अपना राशन पानी ले कर इलाहाबाद के मोहल्लों में किराये का मकान लेकर डेरा डाल देते थे और घर द्वार छोड़ कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाते थे । ममफोर्ड गंज , पुराना कटरा , अलोपी बाग , कीडगंज से लेकर ख़ुल्दाबाद के लगे मोहल्लों में भी छात्रों की भीड़ देखी जा सकती थी । कटरा चौराहे पर रात भर चाय की दुकानें गुलज़ार रहती थीं ।
विश्वविद्यालय के छात्रावास भी इन्हीं प्रतियोगी छात्रों के अड्डे थे । और जब पीसीएस का नतीजा निकलता था तो मोहल्लेवार छात्र चयनित होते थे । मम्फोर्डगंज से दस , कटरा से १५ गंगानाथ झा से २० इस तरह से छात्रों का चयन होता था । गणित में शत प्रतिशत अंक लाने वालों से कला विषय वाले बहुत नाराज़ रहते थे और अपना रोष भी प्रदर्शित करते थे । 
जिस स्तर के छात्र चयनित होते थे उनकी आर्थिक सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि देख कर कभी ऐसा नहीं महसूस होता था कि परीक्षा में बेईमानी भी हो सकती थी । जो बच्चे नहीं चयनित होते थे वह फिर से उत्साह के साथ अगली परीक्षा की तैयारी में जुट जाते थे ।
काँग्रेस के नाम से आज लोग चिढ़ते हैं लेकिन तब काँग्रेस की ही सरकारें होती थीं । सदस्यों की ईमानदारी असंदिग्ध हुआ करती थी । कम से कम वीपी सिंह के मुख्यमंत्रीकाल तक तो ईमानदारी का ही बोलबाला था ।
फिर आई स्केलिंग प्रणाली जिसमें आयोग को अधिकार मिल गया कि वह विभिन्न विषयों में प्राप्त अंकों का रुझान देखते हुए छात्रों के प्राप्तांकों के साथ छेड़छाड़ कर सके । यानी अगर गणित में अधिकतर छात्रों के नब्बे से अधिक अंक हों तो इतिहास भूगोल जैसे कम स्कोरिंग वाले विषयों में छात्रों के अंक बढ़ा दिये जायें ।
एक बार आयोग को कॉपी में छेड़छाड़ का मौका मिला तो पतन शुरू हो गया । नम्बरों की स्केलिंग का फार्मूला क्या होगा यह कभी आयोग ने सुप्रीम कोर्ट तक को नहीं बताया ।
सन ८९ से प्रदेश में सामाजिक न्याय वाली जातिवादी सरकारों का बोलबाला हो गया । आयोग के मुँह में खून लग चुका था तो मर्यादायें भी नष्ट होने लगीं । अब तो तीस वर्ष हो गये , पर्चा आउट होना आम बात हो चुकी है ।
आयोग की विश्वसनीयता नष्ट हो चुकी है । अब तो सिस्टम में आमूल चूल परिवर्तन के लिये आयोग को पूरी तरह भंग कर के नया आयोग बनाने का समय आ गया है ।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ।

नंदा देवी

नंदा देवी एक अद्भुत पर्वत शिखर है । इसके चारों ओर 6000 मीटर से भी ऊँचे पचीस से भी अधिक पर्वत शिखरों का एक प्राकृतिक वृत्त सा बना हुआ है जिसे पार किये बिना कोई नंदा देवी की चढ़ाई शुरू भी नहीं कर सकता । कभी सिक्किम विलय से पूर्व नंदा देवी भारत की सबसे ऊँची पर्वत चोटी थी ।
नंदा देवी और उसके चारों ओर की पर्वत श्रंखलाओं तथा घाटियों को मिला कर जो प्राकृतिक परिवेश निर्मित है उसे नंदादेवी अभयारण्य के नाम से यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित कर रखा है । अभयारण्य के अंदर से लतागाँव के पास ऋषिगंगा नदी बाहर निकलती है तो अभयारण्य में प्रवेश करने का मार्ग भी वही है । ऋषि गंगा एक बहुत ऊँचे गह्वर से पूरे प्रवाह के साथ नीचे गिरती है और पर्वतारोही को प्रवाह के विपरीत चढ़ते हुए अपना मार्ग बनाना पड़ता है । सबसे पहले नंदा देवी की चढ़ाई इसी मार्ग से हुई थी ।
कभी वर्ष ८५ में पिंडारी ग्लेशियर की ट्रेकिंग की थी जहाँ से पिंडर नदी निकलती है जो कर्णप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है । हमारे ट्रेकिंग दल का नेतृत्व श्री गोपाल कृष्ण शर्मा कर रहे थे जो एक दिग्गज पर्वतारोही भी हैं जो उस समय तक नंदा देवी के एक अभियान में भाग ले चुके थे तथा बाद में सन ९३ में पुन: नंदा देवी के एक सफल अभियान में भाग लिया । पिंडारी ग्लेशियर के पास ही पँवाली द्वार नाम की चोटी है जो वहाँ से इतनी नज़दीक दिखाई दे रही थी कि जोश में हमने कहा कि इस पर तो हम लोग भी आराम से चढ़ सकते हैं । गोपाल जी हमारे मामा जी हैं उन्होंने पर्वतारोहण की गंभीरता से परिचित कराते हुये मार्ग में एक शिला पर जड़े हुए जापान सरकार के उस ताम्रपत्र पर हमारा ध्यान आकृष्ट कराया जिसमें उन जापानी पर्वतारोहियों के नाम उत्कीर्ण थे जो कुछ ही वर्ष पूर्व पँवाली द्वार पर्वत पर आरोहण के समय आये एवलाँश (बर्फ के तूफान) में अपने प्राण गँवा चुके थे ।
नंदा देवी में कितना आकर्षण है यह महान पर्वतारोही विलियम ( विली)अनसोएल्ड की कहानी से जाना जा सकता है । १९४८ में २२ साल की उम्र में वह नंदा देवी अभियान पर आया था । नंदा देवी के सौंदर्य से अभिभूत हो कर उसने लौट कर विवाह किया और अपनी पुत्री का नाम नंदा देवी रखा । २८ साल बाद सन ७६ में वह फिर से नंदा देवी आया और इस बार उसकी पुत्री नंदा देवी भी उसके साथ थी ।
विली ने स्वयं सन ६३ में एवरेस्ट पर पताका फहराई थी और अपनी पुत्री को बहुत अच्छी तरह पर्वतारोहण में प्रशिक्षित किया था । पुत्री नंदा देवी अभियान में प्रतिभाग कर अभिभूत थी । वह उस चोटी पर चढ़ाई कर रही थी जिसके नाम पर उसका नाम रखा गया था ।
लेकिन उसने वही गलती की जिसके मोह से बड़े से बड़े अनुभवी पर्वतारोही बच नहीं पाते हैं यानी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अभियान जारी रखना । नियम यही है कि पर्वत शिखर कहीं भागा नहीं जा रहा है । कोई समस्या है तो लौट जाइये और दोबारा आइये ।
नंदा देवी अनसोल्ड के पेट में बेस कैम्प से आगे बढ़ते ही मरोड़ शुरू हो गई थी।लेकिन उसमें अभूतपूर्व उत्साह था , वह अपने मिशन ऑफ लाइफ पर आई थी । अभियान के चौथे पड़ाव तक उसकी तबीयत बहुत बिगड़ गई और नंदा देवी शिखर पर हसरत भरी नजर डाल कर उसने अपने प्राण त्याग दिये । दुखी पिता ने उसे वहीं दफना दिया ।
नंदा देवी लोक गाथाओं की जीवित देवी है । हर बारह वर्ष के अंतर में नंदा जात यात्रा निकलती है जो अपने में अनेक रहस्यों को समेटे है लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी । कुल मिला कर नंदा देवी को संसार के पर्वत शिखरों में जो स्थान प्राप्त है वह एवरेस्ट को भी नहीं मिला हुआ है । बीच में कई दशकों तक भारत सरकार नें नंदा देवी के अभियानों परर रोक लगा रखी थी । 
चित्र इंटरनेट से 
१ नंदा देवी शिखर
२. विली और उनकी पुत्री नंदा देवी अनसोल्ड
३ पँवाली द्वार चोटी का विहंगम दृश्य
पुनश्च नंदा देवी अभयारण्य के अंदर पर्वतारोहण पर अब भी प्रतिबंध नहीं हटा है । अभी केवल बाहरी वृत्त की चोटियों पर अभयारण्य में प्रवेश किये बिना बाहर से ही चढ़ने की अनुमति है । नंदा देवी ईस्ट भी ऐसी ही एक चोटी है जहाँ अभी हाल ही में दुर्घटना में कई पर्वतारोहियों को जान गँवानी पड़ी है
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कौशल विकास की ज़रूरत

अब्राहम लिंकन के पिता जूते बनाते थे जब वह राष्ट्रपति चुने गये तो अमेरिका के अभिजात्य वर्ग को बड़ी ठेस पहुँची ! सीनेट के समक्ष जब वह अपना पहला भाषण देने खड़े हुए तो एक सीनेटर ने ऊँची आवाज़ में कहा, मिस्टर लिंकन याद रखो कि तुम्हारे पिता मेरे और मेरे परिवार के जूते बनाया करते थे ! इसी के साथ सीनेट भद्दे अट्टहास से गूँज उठी ! लेकिन लिंकन किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे ! उन्होंने कहा कि,
मुझे मालूम है कि मेरे पिता जूते बनाते थे ! सिर्फ आप के ही नहीं यहाँ बैठे कई माननीयों के जूते उन्होंने बनाये होंगे ! वह पूरे मनोयोग से जूते बनाते थे , उनके बनाये जूतों में उनकी आत्मा बसती है ! अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण के कारण उनके बनाये जूतों में कभी कोई शिकायत नहीं आयी ! क्या आपको उनके काम से कोई शिकायत है ? उनका पुत्र होने के नाते मैं स्वयं भी जूते बना लेता हूँ और यदि आपको कोई शिकायत है तो मैं उनके बनाये जूतों की मरम्मत कर देता हूँ ! मुझे अपने पिता और उनके काम पर गर्व है !
सीनेट में उनके जवाब से सन्नाटा छा गया !
मैकॉले ने भारतीयों में अपने काम के प्रति गर्व की भावना समाप्त कर दी ! उनके पुश्तैनी कामों को निकृष्ट कर्म घोषित कर दिया और भारत के सभी उद्योग धंधों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया ! ढाका की मलमल बुनने की कला लुप्त हो गई ! भारतीय मोची बाटा और क्लार्क के लिये काम करने लगे ! झूठे आत्मगौरव ने कलात्मक कार्यों से विमुख कर उन्हें काला अंग्रेज बन कर बाबू बनने पर विवश कर दिया ! कारीगरी में हुनर की अभी भी दुनिया में बहुत इज़्ज़्त है ! पुश्तैनी कौशल नष्ट हो जाने के कारण आज सरकार कौशल विकास योजना चला रही है ! अंग्रेज अभी भी अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दम पर मौज कर रहे हैं

राजकमल गोस्वामी

लिंगायत

लिंगायत की अलग धर्म घोषित करने की माँग का मैं समर्थन करता हूँ ! हिंदुओं के सारे मंदिर देवस्थान इसीलिये सरकार ने कब्ज़े में ले लिये कि वह बहुसंख्यक समुदाय के घर्मस्थल थे ! यह देश अल्पसंख्यकों के लिये स्वर्ग है ! आप अपनी धार्मिक शिक्षा संस्थायें चला सकते हैं ! आपके धर्मस्थलों से होने वाली आय आपकी होगी उसे सरकार मनमानी तरह से खर्च नहीं कर सकती ! बहुसंख्यकों के लिये देश दिनोदिन नर्क बनता जा रहा है ! स्कूलों में गीता नहीं पढ़ाई जा सकती ! धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती ! यदि भारत एक धार्मिक राष्ट्र होता तो अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार देना न्यायसंगत होता लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था में तो सभी धर्मों को समान संरक्षण मिलना चाहिये ! वर्ष ८७ के आस पास काशी विश्वनाथ मंदिर का अधिग्रहण किया गया ! मंदिर के तत्कालीन प्रबंधन ने इस अधिग्रहण को सुप्रीम कोर्ट तक चुनौती दी ! अपनी दलील में उन्होंने शैव संप्रदाय को पृथक धर्म और इस प्रकार अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करने की भी प्रार्थना की किन्तु मुकदमा हार गये ! काशी विश्वनाथ सरकारी मंदिर हो गया ! इसके प्रबंधन और कार्यकारिणी में कई सरकारी अधिकारी पदेन सदस्य होते हैं जो किसी भी धर्म के हो सकते हैं ! अभी कुछ ही समय पूर्व मंदिर में पूजा करवाने के लिये २००००/- प्रति माह पर अर्चकों की नियुक्ति हेतु विज्ञापन मेरी नजर से गुज़रे थे ! सरकारी अफसरों ने तो एयर इंडिया और अशोक होटल जैसे संस्थानों को खोखला कर दिया तो मंदिर को क्या नहीं बेच खायेंगे ? मंदिरों की पूजा अर्चनानिर्बाध चलती रहे , यात्रियों और श्रद्धालुओं की भावनाओं को जितना उस धर्म का धर्मावलंबी समझ सकता है उतना सरकार कभी नहीं समझ सकती और एक धर्म निरपेक्ष सरकार को इस चक्कर में पड़ना भी नहीं चाहिये ! लेकिन मंदिर की धन संपदा और संपन्नता पर सरकारों की नज़र महमूद गज़नवी की तरह लगी रहती है ! अल्प संख्यक होने पर सरकार आपको लूटने की बजाय कुछ सबसिडी देगी ! प्रधानमंत्री चादर भिजवायेंगे ! आप अपनी परंपराओं की रक्षा कर सकेंगे ! मेरा मानना है कि हिंदू धर्म के धर्मस्थलों पर सरकार की गृद्ध दृष्टि को देखते हुए हिंदू धर्म से अलग हो जाना ही श्रेयस्कर है ! शैव, वीरशैव, लिंगायत, शाक्त , वैष्णव, कबीरपंथी, दादूपंथी, स्वामीनारायण मार्गी, आर्य समाजी , सनातनी आदि सब को अलग धर्म घोषित कर देना चाहिये । इस तरह सभी अल्पसंख्यक हो जायेंगे और सुरक्षित रहेंगे !

राजकमल गोस्वामी

आम

आमों और चावलों की कितनी किस्में हैं इसका कोई जवाब नहीं है ! शुगर के मरीज़ों के लिये यह दोनों वर्जित हैं ! इंदिरा और फ़िरोज़ गर्मियों में कश्मीर घूमने गये ! कश्मीर की दिलकश वादियों की ख़ूबसूरती देख कर इंदिरा ने पिता को तार भेजा कि आप भी आ जाइये , इलाहाबाद की गर्मी से कुछ राहत मिलेगी,
जवाहर लाल ने लौटता तार भेजा “मगर वहाँ तुम्हारे पास आम कहाँ हैं ! गर्मियों में घनी अमराई में चारपाइयाँ सजा कर बाल्टी में भिगोये हुए डाल के पके ख़ुशबूदार आम चूसने का सौभाग्य अनेक जन्मों में किये गये पुण्य कर्मों का फल है !
रुहेलखंड का बम्बइया आम अगर डाल का पका हो तो अपनी खुशबू मिठास और स्वाद में बेजोड़ होता है ! लखनऊ में डाल का दशहरी बहुत लोकप्रिय है मगर पाल का पका चौसा अवध के आमों मे सबसे अच्छा आम होता है ! जापान की एक टीम ने भारत के सभी आमों का सर्वेक्षण कर के लंगड़ा आम के आयात का ऑर्डर दिया ! बनारस का लंगड़ा पतले छिलके का गूदेदार और हलकी गुठली का फल होता है और पैसावसूल आम होता है !
अलफाँसो की तो कीमत ही स्वाद बिगाड़ देती है ! यूँ तो रत्नागिरि के अलफाँसो बहुत मशहूर होते हैं लेकिन मेरे एक फेसबुक पर मौजूद पुराने मित्र ने देवगढ़ के अलफाँसो की बड़ी तारीफ की और मुझे एक पेटी अलफाँसो भेजने का वादा भी किया ! मैं हर साल उस पेटी का इंतज़ार करता हूँ जो कभी आती नहीं दिखती !
आम फलों का राजा है और गन्ने की तरह आम भी दुनिया को भारत की भेंट है ! लखनऊ में आम का मौसम शुरू हुआ है ! पहली बरसात का इंतज़ार है जिसके बाद दशहरी का असली मौसम शुरू होगा और अगस्त सितंबर तक चौसा के साथ आम अगले एक साल के लिये विदा हो जायेगा !

राजकमल गोस्वामी

शिवलिंग पर्वत पर सूर्यास्त


मैं भाग्यशाली हूँ कि मैं नैनीताल तब गया हूँ जब झील का जल नीला हुआ करता था और इतना पारदर्शी था कि एक दो फुट की गहराई तक साफ दिखता था । नौकुचिया ताल के आस पास कहीं कोई निर्माण नहीं था , उस हरीतिमा में असीम शांति का अनुभव होता था । सन ८३ में जब मैंने गोमुख की यात्रा की थी तब भोजवासा में भोज के इतने वृक्ष थे कि थोड़े बहुत भोजपत्र आप स्मृतिचिह्न के रूप में ले जा सकते थे । तब उत्तर काशी से टिहरी के बीच में सुरंगे बनाई जा रही थीं और टिहरी तब तक एक जीवंत शहर था जिसमें राजमहल था , भिलंगना नदी वहाँ भागीरथी से मिलती थी । भिलंगना के किनारे किनारे चलते हुए अति सुंदर खटलिंग ग्लेशियर तक जाया जा सकता था । 
गोमुख पर तब सुंदर सा स्नाउट बना था जिसके अंदर और बाहर बर्फ के शिलाखंड बिखरे हुए थे । गोमुख के ऊपर धूसर रंग की बर्फ जमी हुई थी , बाईं ओर स्टोन फालिंग ज़ोन के बीच से निकलते हुए रास्ता तपोवन को जाता था । ऊपर भागीरथी और शिवलिंग जैसे शिखर थे ।गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर से चलते हुए पर्वतारोही कालिंदी खाल पार कर के बदरीनाथ निकल जाते थे ।
मुझे रूपकुंड की एक असफल यात्रा का सौभाग्य भी प्राप्त है जब हमारा दल बैंदनी बुग्याल से अगले पड़ाव बग्घूबासा तक बर्फ के तूफान और खराब मौसम के कारण नहीं पहुँच सका ।
लेकिन वह अस्सी और नब्बे का दशक था । उत्तराखंड राज्य का निर्माण नहीं हुआ था । विकास रूपी राक्षस के पंजे उस पर नहीं पड़े थे । चार धाम यात्राओं का धार्मिक स्वरूप और आस्था विद्यमान थी । केदारनाथ के पीछे शंकराचार्य की समाधि देख कर चेतना ही समाधिस्थ हो जाती थी यह सोच कर कि कैसे केरल का एक युवा सन्यासी इतने दुर्गम पर्वतों वनों और अगम नदी घाटियों को पार कर यहाँ आया होगा ।
अब तो शंकराचार्य की समाधि भी नहीं रही , नैनी झील का पानी काला हो गया , नौकुचिया पर फ्लैट बन गये , टिहरी डूबे हुए दस साल से ऊपर हो गये । पहाड़ जाता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है । प्राकृतिक सौंदर्य समाप्त हो गया है । फाइव स्टार कल्चर ने सब कुछ लील लिया वरना सोनप्रयाग के किनारे बैठ कर बिसलरी का पानी पीने का विचार भी मन में नहीं आ सकता था । अलकनंदा की धार बदरीनाथ में इतनी स्वच्छ पारदर्शी और गतिशील होती थी कि लगता था बर्फ की शिला सरकती हुई जा रही हो । 
बहुत दुख हुआ पढ़ कर कि पहाड़ों में सड़कें जाम हो गई हैं, पेट्रोल पंपों में पेट्रोल समाप्त हो गया है , एटीएम पैसे से खाली हो गये हैं ।
उत्तराखंड के पहाड़ प्लेज़र ट्रिप के लिये नहीं हैं । अस्ति उत्तरास्याम दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:। हिमालय एक जीता जागता देवता है । लोग हनीमून के लिये केदारनाथ जाने लगे हैं तो हिमालय का कोपभाजन भी बनेंगे । हिमालय एक नाजुक पहाड़ है , भूस्खलन रोज़मर्रा की बात है । पहले लोग चार धाम यात्रा पर जाते थे तो अपना श्राद्ध का सामान निकाल कर रख जाते थे, जीवित लौट आते थे तो बड़ा भंडारा करते थे ।अब जिसे देखो गाड़ी उठा कर चल देता है । अलग राज्य बन गया है तो उत्तराखंड को राजस्व भी चाहिये । पैसे की यह हवस पहाड़ों को खा जायेगी ।
शिवलिंग पर्वत पर सूर्यास्त

सोरठा

दोहा के एकदम उलट सोरठा एक अतुकांत छंद होता है । दोहा की एक पंक्ति में १३ और ११ मात्रायें होती हैं जबकि सोरठा में ११ और १३ । किसी भी दोहे को सोरठा में परिवर्तित किया जा सकता है । दोहा बहुत लोकप्रिय छंद है मगर सोरठा बहुत प्रभाव उत्पन्न करने वाला छंद है । महत्वपूर्ण अवसरों पर सोरठा को प्राथमिकता दी जाती है ।
तुलसी ने तो रामचरित मानस में सोरठा का अद्भुत उपयोग किया है जैसे वह घटना विशेष को रेखांकित कर रहे हों ।
पहले सम्राट अकबर का सोरठा देखिये जो बीरबल की मृत्यु का समाचार मिलने पर बरबस उनके मुख से निकला था,
दीन देखि सब दीन, एक न दीनो दुसह दुख !
सो अब हम कहँ दीन, कछु नहि राखो बीरवर !!
तुलसी ने तो मानस के मंगलाचरण में ही सोरठों की झड़ी लगा दी है जो सारे के सारे भक्ति रस से ओत प्रोत हैं । किंतु गुरुवंदना का यह सोरठा अद्भुत है और गुरु के प्रति श्रद्धांजलि देता हुआ सा प्रतीत होता है,
बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि !
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रवि कर निकर !!
इसी सोरठे में उनके गुरु नरहरि दास का नाम भी संकेतित है ।
गौरी पूजा पर आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद सीता की प्रसन्नता का वर्णन देखिये 
जानि गौरि अनुकूल, सिय हिय हरष न जाइ कहि !
मंजुल मंगल मूल, वाम अंग फरकन लगे !!
इसी प्रकार केवट के नाटकीय संवादों पर राम की प्रतिक्रिया भी बहुत सहज भाव में व्यक्त की गई है ।
सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे !
बिहँसे करुना ऐन, चितइ जानकी लखन तन !
शिव स्तुति में किष्किंधा कांड का यह सोरठा दृष्टव्य है ,
जरत सकल सुर वृंद विषम गरल जेहिं पान किय !
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस !!
सुंदर कांड में यह सोरठा दृश्य को जीवंत बना देता है
कपि करि हृदय विचार, दीन्हिं मुद्रिका डारि तब !
जिमि असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ !!
मंदोदरी रावण को समझा समझा कर हार गई मगर रावण पर कोई असर नहीं हुआ । मूर्खों से उलझने वालों के लिये तुलसी का यह सोरठा मार्गदर्शक है ,
फूलइँ फलइँ न बेंत जदपि सुधा बरसहिं जलद !
मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहिं बिरंचि सम !!
लक्ष्मण मूर्छित पड़े हैं, हनुमान संजीवनी लाने गये हैं, राम भ्रातृ विछोह मे अत्यंत दुखी हो कर प्रलाप कर रहे हैं । इस सोरठा में तुलसी की काव्य कला अपने उत्कर्ष पर दीख पड़ती है । विलक्षण प्रतिभा के धनी कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है,
प्रभु प्रलाप सुनि कान, भये बिकल वानर निकर !
आइ गयउ हनुमान, जिमि करुणा महँ वीर रस !!
आधुनिक काव्य में दोहा भले सुनने को मिल जाये किन्तु सोरठा जैसा छंद अब विलुप्त हो गया है ।
राजकमल गोस्वामी

इस्लाम और सियासत

भारत में इस्लामी राज्य एक अलग तरह का शासन लेकर आया । इससे पूर्व भी राजाओं में युद्ध होते थे किंतु सामान्य जनता का बहुत बड़ा वर्ग अप्रभावित रहता था ।" कोउ नृप होइ हमै का हानी, चेरी छोड़ि न होउब रानी " वाली मनोवृत्ति थी ।
किंतु इस्लाम ने ग़ैर मुस्लिम प्रजा को मृत्यु, धर्म परिवर्तन और जज़िया में से एक चुनने का विकल्प दिया ।
भारत की सभ्यता और संस्कृति अरब और ईरान दोनों से बहुत उच्च कोटि की थी सामाजिक विषमतायें थीं मगर फिर इस्लाम की दास प्रथा से बुरी स्थिति नहीं थी । मध्यकाल के इस्लामी शासन में लाखों हिन्दू स्त्री पुरुषों को गुलाम बना कर मध्येशिया की मंडियों में बेचा गया ।
ईरान ईराक़ व उत्तरी अफ्रीका की तरह भारत ने इस्लाम के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं कर दिया । राजपूताना ने तो अपनी आन बान शान की रक्षा के लिये जौहर और शाका जैसी प्राणोत्सर्ग कर के भी धर्म रक्षा की परंपरायें शुरू कीं । राजपूतों को साथ लिये बिना भारत में इस्लाम का राज करना दूभर हो गया । विवश हो कर अकबर को जज़िया हटाना पड़ा साथ ही साथ युद्ध में बंदी बनाये गये हिंदू सैनिकों को ग़ुलाम बनाने की इस्लामी सुन्नत को भी त्यागना पड़ा ।
अकबर से लेकर औरंगजेब के आते आते हिंदू मुसलमानों में काफी कुछ सद्भाव विकसित हो गया । दरबारों में हिंदुओं की पैठ हो गई । अपनी आर्थिक आधार पर विकसित जाति प्रथा के कारण हिंदू बहुत सी कलाओं में प्रवीण थे उसका लाभ राज्य को मिलने लगा ।
मगर औरंगजेब ने सब गुड़ गोबर कर दिया । अपने पापों को ढकने के लिये उसे मुल्लाओं के साथ की जरूरत थी अतः वह कट्टरपंथी हो गया । हिंदुओं के विरुद्ध देश व्यापी जिहाद शुरू हो गया । लगभग १०० वर्षों बाद जज़िया फिर बहाल हो गया । यहाँ तक कि हिंदू भिखारियों के कटोरों से भी जज़िया वसूला जाने लगा ।
हिंदुओं की सोई हुई अस्मिता जाग उठी । उत्तर से दक्षिण तक मुग़ल साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा दी गई । सिखों जाटों ने मराठों ने मुगलों की जड़ में मट्ठा डाल दिया और औरंगजेब के बाद ही मुगल साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया । पानीपत की तीसरी लड़ाई तक मुगल सम्राट मराठों पर आश्रित हो गया था इसीलिये यह लड़ाई मराठों और अब्दाली के बीच हुई ।
पानीपत की लड़ाई ने मुगल और मराठा दोनों ही शक्तियों को कमजोर कर दिया और अंग्रेज जो बंगाल तक सीमित थे उनको हिंदुस्तान पर कब्जा करने का हौसला प्रदान किया १७६४ में बक्सर में उन्होंने मुगलों को हरा दिया ।
भारत में अंग्रेजी शासन आ गया । अंग्रेज लुटेरे थे मगर क़ानून बना कर ही लूटते थे । देश में क़ानून का शासन स्थापित हुआ । उत्तर से दक्षिण तक ठगों और पिडारियों का आतंक समाप्त हुआ । लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास हुआ । इसी बीच यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने भारत को पूरी तरह निर्धन करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया । भारत के उद्योग धंधे चौपट हो गये । 
मुसलमानों में अपना खोया हुआ साम्राज्य प्राप्त करने के लिये दो धारायें बन गईं एक देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना कर ईश्वर की शरण चली गई तो दूसरी ने अलीगढ़ में मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा से लैस करने का इरादा किया ।
गाँधी का अभ्युदय एक अद्भुत घटना थी । दक्षिण अफ्रीका में अहिंसा के लगभग सफल प्रयोग के बाद वह भारत आये थे और चंपारन आंदोलन के बाद वह लोकमानस पर छा गये । रौलट एक्ट के विरुद्ध देशव्यापी प्रदर्शनों ने गाँधी का हौसला बढ़ाया और कुछ ही दिनों बाद उन्होंने पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य को सामने रख कर असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया । १८५७ के बाद यह अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे प्रबल आंदोलन था । छात्रों ने कॉलेज जाना छोड़ दिया , वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार कर दिया । सुदूर पहाड़ों में भी मजदूरों और कुलियों ने अंग्रेजों का सामान ढोना छोड़ दिया मगर चौरीचौरा में भीड़ द्वारा एक थाना फूंक दिये जाने मात्र से आहत हो कर गाँधी ने यह आंदोलन वापस ले लिया । पूरा देश निराशा में डूब गया ।
इसी बीच तुर्की में कमाल पाशा ने इस्लाम के सबसे पुराने संस्थान ख़लीफा को उखाड़ फेंका वह मुसलमानों को आधुनिक समय के अनुरूप ढालना चाहता था । मुसलमानों ने कमाल पाशा से स्वयं खलीफा बनने का अनुरोध किया मगर उसने ठुकरा दिया और सभी मुस्लिम रीति रिवाज़ों को आधुनिक बनाने का फैसला किया । तुर्की भाषा की लिपि अरबी से बदल कर रोमन कर दी । यहाँ तक कि देश में अरबी भाषा में अज़ान देने पर भी पाबंदी लगा दी ।
भारत के कठमुल्लों ने ख़लीफ़ा का पद बहाल करने के लिये आंदोलन कर दिया । गाँधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध मुसलमानों का भी सहयोग मिल जाये इस आशा से ख़िलाफत आंदोलन का समर्थन कर दिया । गाँधी की तमाम सदाशयता के बावजूद यह समर्थन गाँधी के जीवन की सबसे बड़ी भूल थी । यहाँ तक कि जिन्ना ने भी इसका विरोध किया ।
मुसलमानों के सभी आंदोलन एक जैसे होते हैं , अपने आस पास के हिंदुओं को लूट लेना उनके घर जलाना उन पर अत्याचार करना । इस्लाम उन्हें अल्लाह के दुश्मनों से लड़ने की शिक्षा देता है । सबसे भयावह लूट पाट केरल में मालाबार में हुई । इसको मालाबार का दूसरा जिहाद भी कहते हैं । हज़ारों हिंदुओं का धर्मपरिवर्तन किया गया । हिंदू महिलाओ पर अकल्पनीय अत्याचार हुए और गाँधी चुप रहे । वह स्वराज्य के बड़े लक्ष्य के लिये छोटी मोटी बात की उपेक्षा करना चाहते थे । चौरीचौरा भी छोटी घटना थी किंतु वह जानते थे कि आंदोलन अगर हिंसक हो गया तो अंग्रेज उसे १८५७ की तरह निर्ममता से कुचल डालेंगे । मालाबार के हिंदुओं से उन्हें ऐसा कोई ख़तरा न था ।
मगर मालाबार की हिंसा ने हिंदुओं की एक शाखा को गाँधी से अलग कर दिया केशव बलिराम हेडगेवार ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया था , अब उन्होंने हिंदुओं को आत्मरक्षार्थ संगठित करने का निर्णय लिया और नागपुर दंगों के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन किया । 
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिंदू राजनीति में एक पृथक अंतर्धारा को जन्म दिया जिसका वर्णन आगे जारी रहेगा !
राजकमल गोस्वामी

सिख

महाराजा रणजीत सिंह ४० वर्ष पूरे पंजाब में एकछत्र राज्य कर के १८३९ में दिवंगत हो गये और उनके बाद उत्तराधिकार के लिये दरबार में फूट पड़ गई । अंग्रेजों ने इसका लाभ उठा कर १८४५ और १८४९ के दो युद्धों में दुर्जेय सिखों को पराजित कर पंजाब पर कब्जा कर लिया । नादिरशाह द्वारा लूटा हुआ कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह ने नादिरशाह के उत्तराधिकारी शुजा शाह से छीना था , वह अंग्रेजों के कब्जे में आ गया जिसे एक भव्य समारोह में रानी विक्टोरिया को भेंट किया गया । महाराजा के अवयस्क पुत्र दलीप सिंह को ईसाई बना कर लंदन भेज दिया गया और वहीं उनकी परवरिश हुई ।
दलीप सिंह जवान हो कर जब भारत लौटे तो अदन में ही उन्होंने दुबारा सिख धर्म स्वीकार कर लिया । पंजाब में १८७० के आस पास सिखों ने सिंह सभा का गठन किया जो मुख्य रूप से धर्म परिवर्तन को रोकती थी ।
रणजीत सिंह जी ने गुरुद्वारों को बहुत सारी ज़मीन दे रखी थी । अकेले ननकाना साहब के गुरुद्वारे के पास १७००० एकड़ जमीन थी और एक लाख रुपये मालगुज़ारी आती थी । अंग्रेजों ने इन गुरुद्वारों पर महंतो के माध्यम से नियंत्रण स्थापित कर रखा था ।
१९२० के आस पास सिंह सभा ने करतार सिंह झब्बर के नतृत्व मे अकाली मूवमेंट शुरू कर इन गुरुद्वारों को एक छत के नीचे लाने के लिये कोशिश शुरू कर दी । यह आंदोलन स्यालकोट के गुरुद्वारे से शुरू हुआ और अमृतसर में हरमंदिर साहब पर नियंत्रण स्थापित करने के साथ ही पूरे पंजाब में फैल गया ।
लेकिन ननकाना साहब के गुरुद्वारे के महंत के पास अपने सैनिक भी थे । जिसने २० फरवरी १९२१ को इन शांतिपूर्ण आंदोलन कारियों पर गोली चलवा दी और कम से कम २०० आंदोलनकारियों की गुरुद्वारे के अंदर घेर कर हत्या कर दी । कई गोलियाँ गुरुग्रंथ साहब को भी लगीं ।
ननकाना साहब नरसंहार जलियाँवाला बाग से भी अधिक हृदयद्रावी था । अंग्रेज अफसरों ने सब कुछ जानते हुए भी उपद्रव को रोकने के कोई उपाय नहीं किये । महात्मा गाँधी स्वयं ननकाना साहब पहुचे । यद्यपि ननकाना साहब इस घटना के बाद सिंह सभा के कब्जे में दे दिया गया लेकिन शेष गुरुद्वारों के लिये सिखों ने आंदोलन छेड़ दिया । गाँधी जी ने ननकाना साहब हत्याकांड में आंदोलनकारियों द्वारा अहिंसा के पालन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की और इस आंदोलन को काँग्रेस का समर्थन प्रदान किया । ब्रिटिश सरकार पंजाब असेंबली में गुरुद्वारा बिल ले कर आई मगर उसमें कमेटी में सरकारी प्रतिनिधियों को रखने की बात पर सिख और नाराज़ हो गये । इसके साथ ही यह आंदोलन जोर पकड़ गया , लगभग ३०००० आंदोलनकारी जिस मे सिख हिंदू सभी शामिल थे गिरफ्तार हुए ।
अंततः सरकार को झुकना पड़ा और १९२५ मे क़ानून बना कर सभी ऐतिहासिक गुरुद्वारा शिरोमणि गुरुद्वारे प्रबंधक कमेटी को सौंप दिये गये ।
इस तरह के आंदोलन और कुछ करें न करें किंतु सामूहिक आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षा जरूर विकसित करते हैं । ख़लाफत आंदोलन ने मुसलमानों को और अकाली आंदोलन नें सिखों को आत्मविश्वास से लबरेज़ कर दिया ।
असहयोग आंदोलन भले ही गाँधी ने वापस ले लिया हो किंतु देश भर में यह विश्वास घर कर गया कि अंग्रेज अब जाने वाले हैं 
राजकमल गोस्वामी

यहूदियों के योगदान

यदि मानवता से केवल यहूदियों के योगदान को निकाल दिया जाये तो हम फिर से अंधेरे युग में प्रवेश कर जायेंगे । 
आज बिजली के बल्ब, एक्स रे, पोलियो वैक्सीन, स्टैनलेस स्टील , न्यूक्लियर एनर्जी से लेकर गूगल और फेसबुक तक यहूदियों की देन है । जो लोग धर्मांध हैं और केवल अपनी धार्मिक परंपरा के कारण यहूदियों से घृणा करते हैं वे कृतघ्न हैं । अब तक यहूदियों को १९० के लगभग नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं जबकि दुनिया में उनकी आबादी २% भी नहीं है ।
विल्हम रॉन्जन के घर एक उद्योगपति पहुँचा उस समय वह अपने गमलों में काम कर रहे थे । उद्योगपति ने उन्हें माली समझा और अपना कार्ड महान वैज्ञानिक तक पहुँचाने को कहा । रॉन्जन ने उसे ड्राइंग रूम में बिठा कर दो घंटे प्रतीक्षा करने को कहा और अपना काम करते रहे । दो घंटे बाद रॉन्जन तैयार हो कर उसके पास आये । उद्योगपति को बहुत आश्चर्य हुआ , उसने १० लाख डॉलर में उन किरणों का पेटेंट हासिल करने का प्रस्ताव रखा और यह भी कहा इन किरणों का नाम मैं आप के नाम पर रॉन्जन रेज़ रखना चाहता हूँ ।
रॉन्जन नें अत्यंत विनम्रतापूर्वक उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा कि यदि मेरी खोज मानवता के किसी काम आ सकती है तो मुझे खुशी होगी लेकिन इस खोज का श्रेय सम्पूर्ण मानव जाति को जाता है । न तो मैं इसका पेटेंट हासिल करूँगा और न इन किरणों को अपना नाम दूँगा । ये किरणें ऐक्सरे के नाम से जानी जायेंगी ।
विल्हम रॉन्जन उन महान यहूदियों में से एक थे जिन्होंने हमारी ज़िंदगी आसान बनाने के लिये जीवन भर संघर्ष किया । मानवता यहूदियों की कृतज्ञ रहेगी ।
राजकमल गोस्वामी